Wednesday, October 15, 2008

कल विश्व खाद्य(हीन) दिवस है

अब तक ईजाद तमाम बमों से ज्यादा खतरनाक बम 'भूख का बम' सुलगना शुरू हो गया है और कभी भी फट सकता है। मौजूदा अमेरिकी मंदी और उसके असर ने इसमे आग में घी डालने जैसे हालत पैदा कर दिए हैं। कल १६ अक्तूबर विश्व खाद्य दिवस के रूप में मनाया जाएगा लेकिन दुनिया भर में भूखे पेट सोने वालों की संख्या तेज़ी से बढती जा रही है।
संयुक्त राष्ट्र खाद्य और कृषि संगठन (ऐऍफ़ओ) के अनुसार २००२ की तुलना में खाद्यान्नों की कीमतों में १४०% की भारी-भरकम वृद्धि हुई है। इसकी वजह से दिसम्बर २००७ से ४० देशो को खाद्यान्न संकट का सामना करना पड़ रहा है। हैती और मेक्सिको में लाखों लोग इसके खिलाफ सड़कों पर उतर आए वही कई देशों में दंगे और लूटपाट की घटनाएं हुई। राष्ट्र संघ ने इन देशो में खाद्य संकट के कारण सामाजिक और राजनितिक उथल-पुथल यानी 'युद्ध जैसी स्थिति' पैदा होने की चेतावनी दी है। इंडोनेशिया, आइवरी कोस्ट, सेनेगल, फिलिपींस, मोरोक्को जैसे देशों में स्थिति ख़राब है। एक रपट के अनुसार हमारे देश में भी दाल, खाद्य तेल और चीनी की भारी कमी २०११ के बाद पैदा हो जायेगी। अर्जुनसेनगुप्ता कमिटी के मुताविक देश में 77% फीसदी लोग 20 रूपये रोजाना से कम में अपना गुज़ारा करते हैं। सोचा जा सकता है की १५ रूपये किलो आटा और १८ रूपये किलो चावल भी इस तबके के लिए काफी महंगा है।
जहाँ एक तरफ़ स्थिति इतनी भयंकर है वहीँ कुछ तथ्य भुखमरी को मुंह चिडाते नज़र आते है। 'गार्जियन' में छपी विश्व बैंक की एक गोपनीय रपट के अनुसार अमीर देशों द्वारा जैव ईधन के इस्तेमाल से खाद्यके दामों में ७५ फीसदी (अमेरिका का दावा सिर्फ़ ३ फीसदी का है) की वृद्धि हुई है। मक्का से एथेनोल बनने वाले अमेरिका ने पिछले तीन साल के दौरान दुनिया के कुल मक्का उत्पादन का ७५ प्रतिशत हिस्सा हड़प कर लिया। कनाडा में कीमत कम होने की वजह से १,५०,००० सुयरों को मारने पर ५ करोड़ डॉलर खर्च किए गए। हमारे देश की सरकारी व्यवस्था भी पीछे नहीं है। भारतीय खाद्य निगम ने माना है की उसके गोदामों में हर साल ५० करोड़ रूपये का १०.४० लाख मीट्रिक तन अनाज ख़राब हो जाता है। यह अनाज हर साल सवा करोड़ लोगों की भूख मिटा सकता है! दुनिया में खाने-पीने की कमी नहीं बल्कि उनके सही बँटवारे की कमी है।
सवाल यह है की इसके लिए जिम्मेदार कौन है? सामने दिखायी देने वाली सरकारी नीतियां इसके लिए जिम्मेदार नज़र आती हों पर असली खेल बाज़ार की ताक़तवर शक्तियां खेल रही हैं। एग्रो बिजनेस मेंबड़ी कंपनियों ने पकड़ बना ली है। खाद्यान्न बाज़ार की सट्टेबाजी में निवेश २००६ के १० अरब डॉलर से २००८ में ६५ अरब डॉलर पहुँच गया है। खाद्य संकट से मोनसेंटो ने २००%, कारगिल नामक कम्पनी ने ८६%, बनगे ने२०% मुनाफा पिछले साल कमाया। वैश्विक स्तर पर महज़ ६ कंपनियों ने पूरे अनाज व्यापार के ८५ फीसदी हिस्से पर कब्ज़ा कर लिया है। कुछ लोगों की मुनाफे की हवस करोडो लोगों को मौत के मुंह में धकेल रही है। ज्यादातर देशों की सरकारें इन ताक़तों के साथ खड़ी हैं बाकि बेवस हैं। अगर ऐसा ही चलता रहा तो बमों से मरने वाले लोगों से कहीं ज्यादा भूख से मर जायेंगे। तो क्या कोई रास्ता नहीं बचा? सबके विफल हो जाने पर इतिहास के रंगमंच पर जनता ख़ुद उतरती है और फ़ैसला करती है। पैदा करने वाले लोग ही आखिरकार उसके बँटवारे का नया तौर-तरीका इजाद करते हैं। क्या यह रास्ता नए सिरे से दुनिया का ढंग-ढर्रा पूरी तरह बदलकर तो नहीं निकलेगा?

1 comment:

DUSHYANT said...

jeeo barkhurdaar ..achchha likha h